BA Semester-5 Paper-1 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2801
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय - ४

अथर्ववेद संहिता :
पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त

प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त

उत्तर -

(१) पृथिवी सूक्त

सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ॥१॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र अथर्ववेद के बारहवें काण्ड के प्रथम सूक्त का प्रथम मंत्र है। इसके ऋषि 'अथर्वा', देवता 'भूमिः' तथा छन्द त्रिष्टुप् है ॥१॥

प्रसंग - भू-मण्डल या पृथ्वी मंडल को अधिवासी राजा और प्रजा को अपने राष्ट्र राज्य या भारत भूमि को किन गुणों या कर्मों के द्वारा उठाना या श्रेष्ठ बनाना चाहिए, इसका उपाय निम्न मंत्र में वर्णित है- 

हिन्दी अनुवाद - सत्य, महत्ता, ऋतु, उग्रता (शक्ति), दीक्षा, तपस्या, ब्रह्म और यज्ञ पृथ्वी को धारण करते हैं। भूत और भविष्यत् की पत्नी वह पृथिवी हमारे लोक को (हमारे लिए) विस्तृत बना दे।

व्याख्या - उपर्युक्त मंत्र में वर्णित किया गया है कि सत्य धारण करना, व्यापक रूप से नियमों पर चलना, आत्महीनता की भाव शून्यता, व्रत पालन, कर्मेन्द्रियों में तपश्चर्या, भगवद् भक्ति, परोपकार पूर्ण कार्य या विद्वत्पूजा इन भावों से किये गये कार्य अर्थात् फललिप्सा न रखना ये सब गुण यदि राजा और प्रजा में होते हैं तो उनसे ये दोनों भारत राष्ट्र को या अपनी भूमि को उन्नत करते हैं। हमारे भूतकाल के गौरव की या भविष्यकाल के उत्कर्ष की रक्षा करने वाली वह हमारे देश के महत्व को भूमंडल प्रतिष्ठापित करे ॥१॥

टिप्पणी - सत्यम् यह शब्द निरुक्त के अनुसार 'अस्' धातु और 'इण्' धातु से मिलकर बना है, जिसमें सत्ता और प्राणी हो उसे सत्य कहते हैं। यहाँ इण् गतौ से यकार लिया गया और अस् धातु से सकार को आदि में रखा गया तथा मध्य में तुदागम। दीक्षा दीक्ष् + अ + टाप् (मौण्ड्येज्योपनयन नियम वृतादेशेषु.) (३) भव्यस्य - भू + भव्येगेयेति कर्तरियत्। (४) बृहत् बृह + शतृ प्रत्यय (५) उग्रम् उत् + गृ = क। (६) पत्नी - या धातु से ङति प्रत्यय और नुडागम तथा ङीप्। (७) अरू: - ऊर्णुञ् आच्छादने + महति हृश्वच्व। इति कुनुलोपो, हृश्वश्च। (८) लोकम् लोक्यते लोक् + घञ् (कर्मणि)। १ ॥

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असंबाधं मध्यतो मानवानाम् यस्या उद्वतः प्रवतः समं बहु। नाना वीर्या ओषधीर्या विभर्ति पृथिवी नः प्रथतां राध्यता नः ॥ २ ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र अर्थववेद के (१२/१) पृथिवी सूक्त से अवतरित किया गया है। इसके ऋषि 'अथर्वा देवता 'भूमि:' तथा छन्द भूरिक् त्रिष्टुप् है ॥ २ ॥

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र में भारतवर्ष की समृद्धि, भव्यता तथा विशालता को वर्णित किया गया है॥

हिन्दी अनुवाद - जिस (पृथ्वी) के बहुत से ऊंचे, नीचे और समतल (क्षेत्र) मनुष्यों के बीच बाधा रहित स्थित है, जो अनेक प्रकार की शक्तियों से युक्त औषधियों को धारण करती है, वह पृथिवी हमारे लिए विस्तृत हो और हम समृद्ध बनें ॥२॥

व्याख्या - भारतवर्ष विस्तृत भूमि से युक्त है। यही कारण है कि यहाँ प्रत्येक व्यक्ति के पास विस्तृत भवन है तथा इन भवनों या क्षेत्रों के मध्य में विस्तार वाली, आकाश में फैलने वाली एक साथ अनेक प्रकार की अनेक शक्तियों से युक्त औषधियाँ हमारी मातृभूमि उपजाती है। वह हमारी विस्तृत राष्ट्रभूमि फल-फूल और हमारे देशवासियों को समृद्ध प्रदान करें ॥१॥

टिप्पणी - (१) प्रवतः और उद्वतः में 'प्र' शब्द और 'उत्' शब्द से मतुप् प्रत्यय हुआ है। (२) असंबधं नास्ति सङ्गता बाधा यत्र तत् ( यह क्रिया विशेषण है)। (३) ओषधी : ओष + धा + कि ओष शब्द में 'उष्' धातु से धञ् प्रत्यय हुआ है। (४) राध्यातम् - 'राध संसिद्धौ' से लोट लकार प्र० पु० ए० व० का रूप है, यह धातु दैवादिक और सौवादिक दोनों प्रकार की है। यहाँ कर्म में यक् प्रत्यय हुआ ॥२॥

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यस्यां समुद्र उत् सिन्धुरापो यस्मान्नं कृष्टयः संबभूवुः। यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत् सा नोभूमिः पूर्वपेयेदधातु ॥३॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र अथर्वेद के (२१/१) पृथिवी सूक्त से उद्धृत किया गया है। इसके ऋषि 'अथर्वा' देवता 'भूमिः' तथा छन्द त्रिष्टुप् है ॥३॥

प्रसंग - प्रस्तुत मन्त्र में पृथ्वी माता के प्रति भक्ति भावना रखते हुए उनसे उत्तमोतम भोज्य पदार्थों को देने की प्रार्थना की गयी है ॥३॥

हिन्दी अनुवाद - जिस (पृथ्वी) पर समुद्र, नदियाँ तथा जल ( हैं ), जिस पर अन्न और फसलें उत्पन्न होती हैं, जिस पर यह श्वास लेने वाला और गतिशील जगत् आनन्दित होता है। वह पृथ्वी हमें उत्तम पेय पदार्थ उपलब्ध करावें ॥३॥

व्याख्या - जिस भारत भूमि को समुद्र तीन ओर से घेरे हैं तथा सिन्ध नाम की अथवा गंङ्गा, यमुना और ब्रह्मपुत्र नाम की नदियाँ बह रही हैं। जिस पृथ्वी पर कूप तड़ागादि जल से भरे हुए हैं, जिसके कारण भारत भूमि में अन्न पैदा होता है, और खेतियाँ हो रही हैं, जिसमें जङ्गम प्राणी तथा स्थावर जगत् दोनों ही प्रसन्नतापूर्वक रहते हैं, इस प्रकार की हमारी भारत भूमि अन्न एवं फल युक्त वृक्षों, पुष्प युक्त लताओं तथा अनेक प्रकार की भोज्य व पेय सामग्री प्राप्त करावें ॥३॥

टिप्पणी - १. अन्नम् - अद् भक्षणे + क्त। अद्यते इति अन्नम्। २. कृष्टयः - कृष्- क्तिन् (प्र० व० ब० )। ३. प्राणत् प्र + अन् शतृ प्राणत्। ४. एजत् एजृ कम्पन + शतृ। ५. जिन्वति जिन्व प्रीणने + लट् प्र० पु० ए० व०। ६. भूमिः भवन्ति अस्यां भावाः पदार्थाः भूतानि वा इति भूमिः। 'भुवः कित्' इति मिप्रत्ययः। ७. पूर्वपेये + पूर्व + पा + यत्। ईद्यति से यत् तथा गुण। यहाँ प्रथमा अर्थ में सप्तमी का प्रयोग है। ८. संबभूवुः। इसका वचन व्यत्यय से 'अन्नम्' के साथ भी अन्वय हैं। इस मंत्र में प्राण धारण करने के हेतु अत्यन्तावश्यक जल तथा उससे स्वयम् अथवा 'भूमिकर्षण से उत्पन्न होने वाले अन्नादि भोज्य, द्रव्य तथा उन पर आश्रित जीवधारी, उनमें भी पहले केवल श्वास क्रिया करने वाले लता वृक्षादि, अर्धचेतन, तत्पश्चात् चेष्टावान् चेतन जगत् का बड़े सुन्दर क्रम से वर्णन करते हुए पृथ्वी माता से समस्त उत्तमोत्तम भोगों को देने की प्रार्थना की गयी है।

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यस्याश्चतस्रः प्रदिशः पृथिव्या यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः। या बिभर्ति बहुधा प्राणदेजत् सा नो भूमिः गोष्वप्यन्त्रे दधातु ॥४॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र अथर्ववेद के (१२/१) पृथिवी सूक्त से उपलब्ध है। इसके ऋषि 'अथर्वा' देवता 'भूमि' तथा छन्द 'सवसाना' षट्पदा जगती है।

प्रसंग - जड़ चेतन जगत् का भरण-पोषण करने वाली मातृ रूपिणी भूमि की समग्र पार्थिव पदार्थों की जननी तथा पोषिका के रूप में प्रस्तुत मंत्र में महिमा समुद् घोषित की गयी है ॥४॥

हिन्दी अनुवाद - जिस पृथ्वी की चार प्रमुख दिशायें हैं, जिस पर अन्न एवं फसलें उत्पन्न होती हैं, जो श्वास लेने वाले व गतिशील (जगत्) को अनेक प्रकार से धारण करती है, वह पृथ्वी हमें गायों और अन्नादि से समृद्ध करें ॥४॥

व्याख्या - जिस पृथ्वी की चार (पूर्व आदि) दिशायें (तथा ऊर्ध्व एवं अधः नामक दो दिशायें और आग्नेय वायव्य, नैऋत्य, ईशान आदि चार उपदिशायें इस प्रकार कुल मिलाकर दश दिशायें हैं।) और जिसमें उत्तम अन्न की उत्पत्ति होती है जो जड़-जङ्गम जगत् का अनेक प्रकार के भोज्य आदि पदार्थों से भरण-पोषण करती है, वह पृथ्वी गवादि पशुओं को तथा अन्नों को प्राप्त करावें ॥४॥

टिप्पणी - (१) बहुधा - बहु + धा। २. कृष्टयः कृष् + क्तितन्। पूर्व मन्त्रोक्त अर्थ को इस मंत्र में प्रकारान्तर से पुनः उपस्थित किया गया है ॥४॥

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यस्यां पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे यस्यां देवा असुरानभ्यवर्तयन्। गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा भगं वर्चः पृथिवी नो दधातु ॥५॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र अथर्ववेद के (१२/१) पृथ्वी सूक्त का यह पंचम मंत्र है। इसके ऋषि 'अथर्वा', देवता 'भूमि:' तथा छन्द त्रयवसाना षट् पदा जगती है ॥५॥

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र में हमारी मातृ रूपिणी, प्रतिभाशाली पृथ्वी की विभिन्न प्रकार से स्तुति की गयी है ॥५॥

हिन्दी अनुवाद - जिस भूमि की मिट्टी से हमारे पूर्वजों का शरीर विलीन हुआ और जिस भूमि पर देवों ने असुरों को हराया। जहाँ विविध पशु-पक्षी निवास करते हैं, वह भूमि हमें ऐश्वर्य प्रदान करे॥

व्याख्या - जिस पृथ्वी में पूर्व उत्पन्न हुए हमारे पूर्वजों का शरीर विकार का प्राप्त हुआ, ( उनका पार्थिव शरीर विष्ठा रूप में या भस्म रूप में भूमि में विलीन हो गया) तथा जिस भूमि में देवताओं ने असुरों अर्थात् देवों के द्रोहियों को पराजित किया। जहाँ गाय, भैंस, बकरी आदि दूध देने वाले, घोड़े, बैल आदि सवारी में काम आने वाले तथा मोर, तोते, गिद्ध आदि पक्षी विशेष रूप से स्थित हैं, वह हमारी भारत भूमि हमारे लिये ज्ञान आदि ऐश्वर्य और तेज प्रदान करें ॥५॥

टिप्पणी - विचक्रिरे वि + कृ + लिट् प्रथम पुरुष, बहुवचन। २. अभ्यवर्तयन् - अभि + वृत् + णिच् लङ् लकार प्रथम पुरुष एकवचन। ३ अवर्तयन् अभिमुखी भूय परावर्तयन्। विष्ठा वि + स्था + क्विप्।

इस मंत्र में भी पूर्व मंत्रों के समान पौराणिक कथाओं को लक्षित करके पृथ्वी के प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन किया गया है ॥५॥

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विश्वंरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्य वक्षा जगतो निवेशिनीः। वैश्वानरं बिभ्रती भूमिर ग्निमिन्द्रऋषभा द्रविणेनो दधातु ॥६॥

सन्दर्भ - मातृभूमि के प्रति भक्ति से ओत-प्रोत यह मंत्र अथर्ववेद के (१२/१) पृथ्वी सूक्त का मंत्र है। इसके ऋषि अथर्वा देवता 'भूमि' तथा चन्द 'त्रयवसाना षट्पदा जगती है ॥६॥

प्रसंग - इस मंत्र में सुख-संपत्ति की वृष्टि करने हेतु पृथ्वी माता से प्रार्थना की गयी है ॥६॥

हिन्दी अनुवाद - विश्व का भरण करने वाली, धन को धारण करने वाली प्राणियों की स्थिति की हेतु है, सुवर्ण को (खान रूप में) वक्षःस्थल में धारण करने वाली, जगत् को बसाने वाली, वैश्वानर अग्नि को धारण करने वाली तथा वृषभ रूप इन्द्र को धारण करने वाली पृथ्वी हमको धन प्रदान करे ॥६॥

व्याख्या - प्रस्तुत मन्त्र में पृथ्वी माता के गुणों का गान करते हुए कहा गया है कि यह जगत् पालयित्री भारत भूमि (जहाँ उत्पन्न हुए या रहने वाले प्राणी प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हैं)। संसार को धारण करने वाली, पालन करने वाली स्वर्ण की खानों से युक्त है। संसार भर की शरणभूत अग्नि को (सूर्य और भौतिक अग्नि को ) ( यज्ञादि के द्वारा और सूर्य के अन्त् न होने से ) धारण करती हुई बहुविधि गैरिक, अभ्रक, सङ्गमरमर भूमि विशेषों को धारण करने वाली अग्नि, कोयले से हीरा बनाने वाली, भूग भग्नि को धारण करती है। इन्द्र की श्रेष्ठता, जिसमें हो ऐसी अन्य भूमि से अधिक ऐश्वर्य देने वाली, हमें ऐश्वर्य, धन- धान्य संपत्ति में निमग्न कर दे ॥६॥

टिप्पणी - १. विश्वंभरा विश्वं विभर्तीति विश्वंभरा। विश्व + भृ + खच्। २. वसुधानी धीयन्तेऽस्यामिति धानी। धा + अधिकरणे ल्युट् ङीप्। वसूनां धानीति वसुधानी। षष्ठी तत्पुरुष। ३. प्रतिष्ठा - प्रतिस्थापयति। इति अन्तर्भावितण्यर्था धातु से प्रति + स्था + अङ्। ४. हिरण्य वृक्षा हिरण्यमेव वक्षः वक्षः स्थानीयं यस्याः सा। ५. निवेशिनी नि + विशून् + ल्युट् + ङीप्। ६. बिभ्रती भृञ् + शतृ + ङीप् 'उगि तश्च। ७. इन्द्र ऋषभा इन्द्रः ऐश्वर्यम् तेन ऋषभा श्रेष्ठभूता इति इन्द्र ऋषभा। ८. द्रविणे द्र + इनन्। ९. दधातु - धा धातु धारण पोषण योः जुहीत्यादि, लोट् लकार प्र० पु० ए० व०। इन्द्र ऋषभाः से 'धन्यानराः ' भारत भूमि भागे। इत्यादि 'भागवत' के श्लोक से साम्य है। प्रतिष्ठा शब्द से भी जहाँ प्रतिष्ठा के पात्र होते हैं। जैसे- ऋषि आदि वेदोद्धारक ऋषियों के कारण प्रतिष्ठा प्राप्त हैं

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यां रक्षन्त्यस्वप्ना विश्वदानीं देवा भूमिं पृथिवीमप्रभादम्। सा नो मधु प्रियं दुहामथो अक्षतु वर्चसा ॥ ७ ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र अथर्ववेद के (१२/१) पृथ्वी सूक्त का मंत्र है। इसके ऋषि 'अथर्वा' तथा देवता 'भूमि' है ॥ ७ ॥

प्रसंग - विविध प्रकार के फल-फूल दुग्धादि मधुर पदार्थों की जननी पृथ्वी है। अतः इस मंत्र में पृथ्वी माता से प्रार्थना की गई है कि वह हमें उत्तम पदार्थ दें और शक्तिशाली बनावे ॥ ७ ॥

हिन्दी अनुवाद - शयन न करने वाले देवता जिस पृथ्वी की सावधानी से रक्षा करते हैं वह हमको मधुर और प्रिय (अन्नादि ) को दे वे फिर तेजस्विता से युक्त करें ॥ ७ ॥

व्याख्या - जिस मातृ रूपा वसुन्धरा की नित्य जागरूक देवता या देव तुल्य मनुष्य प्रमाद रहित होकर रक्षा करते हैं, वह भूमि हमारे लिए अभीष्ट माधुर्य युक्तं (अन्न, दुग्धादि ) प्रदान करें और तेजस्वी बनावे

टिप्पणी - विश्वदानीम् (१) विश्वेभ्यः दानं यस्यासा ताम्। विश्वा + दा + ल्युट् + ङीप्। (२) पृथिवीम् - प्रभु विस्तारे, प्रथमे विस्तार यातीति पृथिवी 'पृथः ष्विन् सम्प्रसारणंच। इस उणादि सूत्र से ष्विन् प्रत्यय तथा सम्प्रसारण और ङीव है। (३) अस्वप्ना न विद्यते स्वप्नः येषां ते। (४) दुहाम् दुह धातु, । - आत्मनेपद प्रथम पुरुष एकवचन वकार लोप है। इस मंत्र में प्रसार पंक्ति है ॥६॥

यार्णवेऽधि सलिलमग्र आसीद् या मायाभिरूवचरन् मनीषिणः। यस्या हृदयं परमे व्योऽमन्त्य्सत्येनावृत्ममृतं पृथिव्याः। सा नो भूमि स्त्विषि बलं राष्ट्रे दधातूत्तमे ॥ ८ ॥

सन्दर्भ - पृथ्वी विषयक यह मंत्र अथर्वेद (१२/१) पृथ्वी सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि 'अथर्वा' देवता 'भूमि' तथा छन्द 'व्यवसाना 'षट्पदा विराऽष्टि' है ॥ ८ ॥

प्रसंग - सृष्टि उत्पत्ति रहस्य से अनभिज्ञ विद्वानों ने प्रस्तुत मंत्र में जगत् को सत्-असत् अनिवर्चनीय तथा पृथ्वी को सद्- सद् रूप नित्य मानकर निर्भयता तथा शक्तिमत्ता का संचार करने की प्रार्थना की गयी है ॥ ८ ॥

हिन्दी अनुवाद - सृष्टि के आदि में जो पृथ्वी गतिशील या जलमय स्थान में सूक्ष्म रूप से जिसे विद्वानों ने माया रूप 'अनेक रूप' बतलाया और जिसके तत्व को केवल सर्वस्रष्टा भगवान् ने ही जाना और जिसका तत्व सत्य, भूत तथा अमर है, वह भूमि हमारे भारत राष्ट्र में अदम्यता और शक्तिमत्ता का संचार करे ॥ ८ ॥

व्याख्या - सृष्टि के आरम्भ में जो भूमि जल के अन्दर थी जिस पृथ्वी को मनीषियों ने माया के रूप से (अर्थात् विद्वानों ने सृष्टि या जगत् को) सत्-असत् अनिवर्चनीय या माया रूप से कहा, जिस पृथ्वी का रहस्य उत्कृष्ट, ईश्वरीय शक्ति में निहित है वह रहस्य यह है कि पृथ्वी का परमाणु रूप से सद्रूप से नित्य है, अतएव वह तत्व सत्य से सत्वादि त्रैगुण्य से ढका है अर्थात् पृथ्वी जगत् प्रलय काल में भी सूक्ष्म रहता है। पृथ्वी पद में पञ्च महाभूतों का उपलक्षण है। वह भूमि दिव्य गुण वाली हमारे लिए श्रेष्ठ राष्ट्र में दीप्ति, तेज तथा निर्भयता आदि शक्ति को धारण करावें ॥ ८ ॥

टिप्पणी - (१) अर्णवे अर्णासि जलानि सन्त्यस्मिन्निति अर्णवः तस्मिन्। 'अर्णस् + व प्रत्यय' इति सकार लोपः। २- अधि सलिलम् 'अधिशीस्थासां कर्म' सूत्र के आधार (सलिल) कर्म संज्ञा होकर द्वितीया ॥ का प्रयोग हुआ है। ३- अन्वचरन् अनु + चर + लङ् लकार प्र० पु० बहुवचन। ४. व्योमन् व्येञ संवरणे + मनिन्, वीयते, संव्रियते आच्छाद्यते घनैः इति व्योम, पृषोदरादित्वात् साधुः। ५ त्विषिम् त्विष् + कि। द्वितीया एकवचन। यह मन्त्र मनुप्रोक्त 'अपएव ससर्जादौ का मूल है। सृष्टि का रहस्य विद्वान् नहीं जानते हैं। लिखा भी है - या विन्दन्तः वहवो नैव विद्युः उसे तो एकमात्र जगन्नियन्ता ही जानता है, यह व्योमन् पद का आशय है ॥ ८ ॥

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यस्यामापः परिचराः समानीरहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति। सा नो भूमिर्भूरिधारा पयो दुहामथो उक्षतु वर्चसा ॥९॥

 सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र अथर्ववेद के (१२/१) पृथ्वी सूक्त से अवतरित किया गया है। इस मंत्र के ऋषि 'अथर्वा' देवता 'भूमि' तथा परानुष्टुप् छन्द है ॥९॥

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र में भारतवर्ष की पृथ्वी पर दिन-रात निर्बाध रूप से बहने वाले जल की महिमा का वर्णन किया गया है ॥९॥

हिन्दी अनुवाद - जिसमें विचरण करने वाले जल दिन-रात में एक-सी रीति से सावधानीपूर्वक बहते रहते हैं, ऐसी भूमि धारा भूमि हमको दुग्ध की समान सारभूत फल को देवे और हमको तेजस्वी बनावे

व्याख्या - जिस (भारत) भूमि में जल सर्वत्र उपलब्ध होते हैं अर्थात् जल प्राप्ति सुलभ हैं अरब का रेगिस्तान नहीं तथा वर्ण जाति से रहित होने से सबके लिए एक से और मिठास वाले जल हैं तथा जहाँ रात और दिन अर्थात् ग्रीष्म और शिशिर आदि ऋतुओं में बिना प्रमाद या निरन्तर जल प्रवाह बहते रहते हैं। वह अनेक जलधारा वाली पृथ्वी हमें जल या दुग्धादि को देवे तथा दैन्यरहित तेजस्विता से परिसिंचित कर दे ॥९॥

टिप्पणी - १. परिचराः = परितः सर्वतः चरनइ इति परिचराः। 'चरेष्ठः' इतिट प्रत्यय। २. अहोरात्रे - अहश्च राविश्चेति अहोरात्रः (द्वन्द्वसमासः), रात्राह्नाहाः पुंसि तस्मिन्। ३. भूरिधारा (बहुव्रीहिः ) ४. दुहाम् दुह् धातु आत्मनेपद लोट् लकार प्र० पु० ए० व०। छन्द परानुष्टुप् है ॥९॥

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यामश्विनावमिमातां विष्णुर्यस्यां विचक्रमे। इन्द्रो यां चक्रं आत्मनेऽन मित्रां शचीपतिः। सा नो भूमिर्वि सृजतां माता पुत्राय में पथः ॥ १० ॥

सन्दर्भ - पृथ्वी विषयक एकमात्र सूक्ते का यह दशम मंत्र अथर्ववेद के (१२/१) के पृथ्वी सूक्त से उद्धृत है। इसके ऋषि 'अथर्वा', देवता, 'भूमि:' तथा छन्द त्र्यवसाना षट्पदां जगती है ॥ १० ॥

प्रसंग - माता और पुत्र की भव्य भावुकता से ओत-प्रोत इस मंत्र में पृथ्वी की तुलना माता से की गयी है ॥ १० ॥

हिन्दी अनुवाद - जिस (पृथ्वी) को अश्विनी कुमारों ने नापा है, जिस पर विष्णु ने (अपना) पादन्यास किया, जिसे शक्ति के स्वामी इन्द्र ने अपने ( हित के लिए शत्रुविहीन कर दिया था। ऐसी भूमि, माता जैसे पुत्र को दूध पिलाती है। इस प्रकार मेरे लिए दुग्ध के समान सारभूत, फल को देवे ॥ १० ॥

व्याख्या - जिस (भारत-भूमि) में सूर्य-चन्द, दिन-रात, सुर-असुर, विरोधी ग्रीष्म-वर्षा आदि ऋतुएँ साथ-साथ रहती है जहाँ पर भगवान् विष्णु ने विक्रमण किया। शक्तियों के स्वामी इन्द्र ने अपने लिए शत्रु रहित बनाया वह हमारी मातृ तुल्य भारत भूमि मुझे या मुझ जैसे पुत्रों के लिए जल या दुग्ध की वर्षा करें ॥ १० ॥

टिप्पणी - अभिमाताम् मा माने, आत्मनेपद, लङ् लकार प्र० पु० द्विवचन। २. विचक्रमे वि + क्रम पादविक्षेपे लिट् लकार प्र० पु० ए० व०। ३. अनमित्राम् न मिताणि इति अमित्राणि। विद्यन्ते अमित्राणि यस्यां सा अनमित्रा, ताम्। नञ् समास ॥ १० ॥

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अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र में अग्नि देवता की वन्दना की गई है। अग्नि देवता ही यज्ञ में तथा उसके चारों ओर अपना प्रभाव दर्शाते हैं।

व्याख्या - अग्नि देवता हिंसा रहित है यज्ञ में तथा उसके चारों ओर व्याप्त है तुम्हारी सहायता से पुरोहित यज्ञ करता है उस यज्ञ फल का प्रभाव सीधे देवताओं को प्राप्त होता है तथा देवता उस यज्ञ से प्रसन्न होकर यज्ञकर्त्ता को आशीर्वाद प्रदान करते हैं।

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तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः संभृतं प्रषदाज्यम्

प्रसंग - प्रस्तुत मत्रांश में बताया गया है कि किस प्रकार ब्रह्म ने इस सृष्टि की रचना की तथा किस प्रकार तीनों लोकों में इस कार्य को सम्पन्न किया।

व्याख्या - ऋग्वेद में पुरुष सूक्त में कहा गया है कि पुरुष अर्थात स्वयं ब्रह्म ने सर्वप्रथम यज्ञ में अपने को समर्पित अर्थात हुत कर दिया। उससे दधि मिश्रित घृत उत्पन्न हुआ जिससे आकाश में गमन करने वाले धरती पर रहने वाले पुश-पक्षी उत्पन्न हुए। यह मंत्र सृष्टि की प्रारम्भिक दशा अर्थात् मनुष्य की रचना से भी पूर्व की स्थिति को दर्शाता है।

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अहं रुद्राय धनुरात नोमि

प्रसंग - ऋग्वेद का प्रस्तुत सूत्र मंत्र वाक्सूक्त से चुना गया है। इसमें यह बताया गया है कि जो लोग स्वयं सत्य का आचरण करते है उनकी रक्षा ईश्वर स्वयं करता है।

व्याख्या - वैदिक ऋषि मुनि ऐसा विश्वास करते थे कि जो सत्य का आचरण करते है। उनकी सदा विजय होती है। यदि ऐसे सत्यात्मा जनों को कोई कष्ट देता है तो उनकी रक्षा करने के लिए स्वयं ईश्वर उत्पन्न होता है।

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तन्मे मनः शिन सङ्कल्पमस्तु

प्रसंग - शुक्ल यजुर्वेद का शिव संकल्प सूक्त से यह मंत्राश लिया गया है इसमें ईश्वर से प्रार्थना की गई है।

व्याख्या - भूत, भविष्य या वर्तमान की समस्त योजनायें मन में ही स्थिर रहती है इसलिए यज्ञ देव से प्रार्थना है कि मेरा मन सदैव शुभ संकल्प वाला हो। मेरा मन सदैव अच्छे विचारों को स्थिर रखे किसी भी प्रकार बुरे विचार किसी भी काल में न आवें। -

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पृथ्वी नः प्रथतः राध्यतां नः।

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्राश अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त से चुना गया है इसमें अपने देश भारत की समृद्धि की कामना की गयी है।

व्याख्या - पृथ्वी का स्वरूप ऊँचा-नींचा एवं समतल एवं विशाल है। इसमें अनेक शक्तियां विद्यमान रहती है। अनेक औषधियों का भण्डार रहता है। वह पृथ्वी हमें वैभव सम्पन्न बनाये तथा पृथ्वी पर पर्याप्त क्षेत्र हमें प्राप्त हो। ऐसी कामना की गयी है।

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सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात॥

प्रसंग - ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में लिखे मंत्रांश में बताया गया है कि ईश्वर बहुत व्यापक है।
व्याख्या
- परम पुरुष अर्थात ईश्वर सर्व शक्तिमान वह अपने द्वारा अनेक पुरुष उत्पन्न करता है जो हजारों की संख्या में उसकी आज्ञा का पालन करते है इसलिए उस परम पुरुष (ब्रह्म) को हजार सिरों वाला, हजारों नेत्रों वाला तथा हजारों पैरों वाला कहा जाता है। ब्रह्म ही सर्वव्यापक है।

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अहं जनाम समदं कृणोम्यहम।

प्रसंग - यह मंत्रांश ऋग्वेद के वाक् सूक्त से लिया गया है। इसमें वाक् के कार्यों पर प्रकाश डाला गया है।

व्याख्या - सत्य का सदैव पालन करना चाहिए। सत्य का आचरण करने वाले जनों की रक्षा सदैव वाक् देवी करती है। जो पापी लोग है उनको दण्ड देने के लिए आवश्यक होने पर युद्ध भी करती है।

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इन्द्रऋषभा द्रविणे नो दधातु

सन्दर्भ - मातृभूमि के प्रति ओत-प्रोत यह यंत्र अथर्ववेद के (१२/१) "पृथ्वी सूक्त" का मंत्र है। इसके ऋषि अथर्वा, देवता "भूमि" है।

प्रसंग - इस मंत्र में सुख सम्पत्ति की वृष्टि करने हेतु पृथ्वी माता से प्रार्थना की गयी है।

व्याख्या - इन्द्र की श्रेष्ठता जिसमें हो ऐसी अन्य भूमि से अधिक ऐश्वर्य देने वाली, हमें ऐश्वर्य धन- धान्य सम्पत्ति में निमग्न कर दे। इस मंत्रांश में पृथ्वी माता के गुणों का गान करते हुए कहा गया है कि जगत पालयत्री भारतभूमि, संसार को धारण करने वाली, पालन करने वाली स्वर्ण की खानों से युक्त है।

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परिगृहीतममृतेन सर्वम्

सन्दर्भ - शिवसंकल्प सूक्त से उद्धृत यह मंत्र शुक्ल यजुर्वेद के ३४वें अध्याय से अवतरित है। जिसके ऋषि ' याज्ञवलक्य' देवता 'मन' तथा त्रिष्टुप छन्द है।

प्रसंग - भूत, भविष्य, वर्तमान में हम जो भी योजनायें बनाते हैं। वह मन के द्वारा ही स्मृति में स्थिर रहती है तथा समयानुसार हम उन योजनाओं को आगे बढ़ाते हैं। इसी बात का वर्णन इसमें किया गया है।

व्याख्यां - मानस शक्ति की अप्रतिम विलक्षणता का इस मंत्र में बोध कराया गया है। मानव के पास यदि मन न हो तो वह अपनी ही बात को भूल सकता है। किन्तु मन ही एक ऐसा साधन है। जो किसी काल में किये गये संकल्पों को याद रखता है। समयानुकूल होने पर उन कार्यों को क्रियान्वित करता है। अतः अमृत समान मेरा मन, पाँच प्राण, बुद्धि तथा आत्मा, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, जीवात्मा ये सात आहुति देने वाले यज्ञकर्ता है। ऐसा मेरा मन शिवसंकल्प वाला होवे।

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यशसं वीरक्त्तमम्

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्रान्श अग्नि सूक्त' से अवतरित है। इसके देवता अग्नि, ऋषि मधुच्छन्दा, तथा गायत्री छन्द है।

प्रसंग - अग्नि की पूजा करने एवं पूजा से प्राप्त ऐश्वर्य के बारे में बताया गया है।

व्याख्या - जो व्यक्ति नियमित रूप से अग्नि में हवन करता है। वह अग्नि के मध्य से प्रतिदिन वृद्धि को ही प्राप्त होने वाले यश से युक्त और श्रेष्ठ वीर पुरुषों से युक्त धन को प्राप्त करें अर्थात् अग्नि के द्वारा यजमान ऐसा धन प्राप्त करे। जो प्रतिदिन बढ़ने वाला हो और जो श्रेष्ठ वीर पुरुषों से परिपूर्ण हो।

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चिकीतुषा प्रथमा यजियानाम

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद (१०/१२५) का तीसरा मंत्र है। जोकि त्रिष्टुप छन्द में निबद्ध है।

प्रसंग - सम्पूर्ण जगत के सम्पूर्ण कार्यों में व्याप्त वाक् के अद्वैत रूप का वर्णन प्रस्तुत मंत्र में किया गया है।

व्याख्या - जिस प्रकार के ब्रह्मा के विविध रूपों को व्याप्त करने वाली सब कुछ जानने वाली उसकी शक्ति 'वाक' है। यही कारण है कि वह समस्त देवताओं में भी प्रथम है। संसार के सभी प्राणियों एवं पदार्थों में व्याप्त है। तथा इच्छानुसार देवताओं व मनुष्यों को प्रिय लगने वाले सारे वचन स्वयं ही बोलती है। स्वयं ही जीवों को कार्य के अनुसार ऋषि एवं ब्रह्मज्ञानी तथा बुद्धिमान बनाती है।

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यास्ते भूमे अधरात् याश्च पश्चात्।

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र 'पृथ्वीसूक्त' से अवतरित है। इस मंत्र के 'देवता भूमि, तथा ऋषि अथर्वा है।

प्रसंग - सृष्टि की उत्पत्ति का रहस्य एवं उनकी अनभिज्ञता के कारण विद्वानों ने प्रस्तुत मंत्र में पृथ्वी को सद्- सद् रूप नित्य मानकर उसकी शक्तिमता का संचार करने की प्रार्थना की गयी है।

व्याख्या - सृष्टि के आरम्भ में जो पृथ्वी जल के अन्दर थी, जिस पृथ्वी को मनीषियों ने माया के रूप में सत्-असत् स्वरूप बताया है। जिस पृथ्वी का रहस्य ईश्वरीय शक्ति में निहित है। प्रलय काल में भी सूक्ष्म रहता है। वह भूमि दिव्यगुण वाली हमारे लिए श्रेष्ठ तेज, शक्ति को धारण करावे।

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हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठम्।

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेय संहिता के शिवसंकल्प नामक सूक्त का छठा मंत्र है। इसके ऋषि याज्ञवलक्य देवता मन तथा त्रिष्टुप छन्द है।

प्रसंग - एक मन ही ऐसा साधन है। जिसके द्वारा प्राणी एक स्थान पर बैठे-बैठे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सैर करता है। मन के द्वारा शरीर और इन्द्रियों को बोध कराता है।

व्याख्या - मन जो सदा जरा से रहित तथा अति वेगवान है अच्छा सारथी घोड़ों को इधर-उधर प्रेरित करता है। अपने वश में रखता है। उसी प्रकार मन भी प्राणियों को इधर-उधर प्रेरित करता है। जो नित्य तथा शीघ्रगामी है। मन सही दिशा में ले जाता है। इन्द्रियों को दिशा बोध कराता है। ऐसा मेरा मन शिवसंकल्प वाला बने।

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अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र 'अग्निसूक्त' से उद्धृत है। इस मंत्र में देवता अग्नि, ऋषि मधुच्छन्दा एवं गायत्री छन्द है।

प्रसंग - इस मंत्र में अग्निदेवता की वन्दना की गयी है। क्योंकि अग्नि के देवता को पुरोहितों ने यज्ञ में बुलाने के लिए वन्दना करते है।

व्याख्या - यज्ञ के पुरोहित प्रकाश से युक्त अर्थात् दान आदि गुणों से युक्त देवताओं को यज्ञ में बुलाने वाले ऋत्विक तथा रत्नों के सर्वाधिक दाता अग्नि देवता, की मैं पूजा करता हूँ अर्थात् अग्नि देवता की मैं वन्दना करता हूँ।

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ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

सन्दर्भ - सृष्टि विषयक यह मंत्र ऋगवेद (१०/६०) पुरुषसूक्त, से वर्णित है। इसके ऋषि नारायण, देवता - पुरुष तथा अनुष्टुप छन्द है।

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र में उस पुरुष को लक्ष्य करके प्रश्नोत्तर के रूप से ब्राह्मण आदि की सृष्टि को कहने के लिये ब्राह्मवादियों के प्रश्न प्रस्तुत है।

व्याख्या - सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति एवं विकासकर्ता अर्थात् ब्रह्म ही है। "ब्राह्मण इस विराट पुरुष का मुख है। जबकि ब्राह्मण इस समाज को दिशा-निर्देशित करते हैं, जो बाणी के द्वारा संभव है। और वाणी मुख द्वारा क्षत्रियों की उत्पत्ति भुजाओं के द्वारा है। वैश्यों की उत्पत्ति मध्य भाग से है। समाज का भरण- पोषण उदर रूप में सांकेतिक किया गया है। तथा पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई।

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अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि।

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद दशम मण्डल के १२५वें सूक्त से उद्धृत किया गया है। यह मंत्र वाक्सूक्त का प्रथम मंत्र है। अष्ट मंत्रात्मक इस सूत्र की द्रष्टी अम्भृण ऋषि की पुत्री वाक् है। देवता परमात्मा है तथा छन्द त्रिष्टुप है।

प्रसंग - वाक् परमेश्वरी शक्ति है। अतएव यहाँ पर वाक़ के सर्वव्यापी स्वरूप का उल्लेख करते हुए जगत के कारण स्वरूप ब्रह्म के साथ तादात्म्य स्थापित किया गया है।

व्याख्या - मैं शूद्रों, वसुओं, आदित्यों और विश्वदेवों के साथ विचरण करती हूँ। मैं दोनों मित्र वरुण, इन्द्र और अग्नि तथा दोनों अश्विनी कुमारों को धारण करती हूँ। ब्रह्म और वाक् (शक्ति) के संयोग से ही जगत की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार होता है। अतः वाक् परमात्मा की दिव्य शक्ति है। जो सम्पूर्ण जड चेतना जगत में व्याप्त है।

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येन यज्ञस्तायते सप्त होता तन्मेमनः शिवसंकल्पमस्तु।

सन्दर्भ - शिव संकल्पसूक्त से उद्धृत यह मंत्र शुक्लं यजुर्वेद के ३४वें अध्याय से अवतरित है, जिसके ऋषि याज्ञवल्क्य', देवता 'मन' तथा त्रिष्टुप छन्द हैं।

प्रसंग - भूत, भविष्य और वर्तमान में जो भी योजनायें हम बनाते है। वह मन के द्वारा ही स्मृति में स्थिर रहती है और समयानुसार हम उन योजनाओं को आगे बढ़ाते हैं। इस प्रकार का वर्णन ही इस मंत्र में किया गया है।

व्याख्या - मानव के पास यदि मन न हो तो वह अपनी कही गयी बात को शीघ्र ही भूल सकता है। किसी भी कार्य का उसे ध्यान नहीं रहेगा, वह समयानुकूल होने पर कार्यों को करता है। अतः ऐसा अप्रतिम मानस शक्ति का इस मंत्र में बोध कराया गया है।

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तस्मादश्वा अजायन्त।

सन्दर्भ - सृष्टि विकास प्रक्रिया से सम्बन्धित यह मंत्र ऋग्वेद के (१०१६) 'पुरुष' सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि 'नारायण' तथा देवता 'पुरुष' एवं छन्द अनुष्टुप है।

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र सृष्टि विकास से ही सम्बन्धित है जो 'पुरुष सूक्त' के गौरव को बढ़ाता है। व्याख्या सृष्टि रचना क्रम में उस सर्वहुत यज्ञ से अश्व उत्पन्न हुए, जिस अश्वों के अतिरिक्त दोनों ओर दाँतों वाले गधे, खच्चर, आदि उत्पन्न हुए उसी से दूध देने वाली गायें, बकरियाँ आदि पशु उत्पन्न हुए।

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तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।

सन्दर्भ - ऋग्वेद पुरुष सूक्त' का यह अन्तिम मंत्र है। इसके ऋषि - नारायण, देवता- पुरुष, तथा त्रिष्टुप छन्द है।

प्रसंग - सृष्टि हेतु जिन देवताओं ने यज्ञ किया था, वे किस स्वरूप और स्थान को प्राप्त हुए उसी का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - देवताओं ने यज्ञ के द्वारा उस पूज्यनीय परमात्मा की पूजा की वह प्रमुख धार्मिक कार्य थे। निश्चय ही यज्ञ करने वाले वे विद्वान महिमा से मुक्त होकर स्वर्ग अथवा आनन्द के उस परमधाम को प्राप्त होते है। जहाँ यज्ञ रूपी धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने वाले विद्वान रहते है।

(२) विष्णु सूक्त

विष्णोर्नु के वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजसि। यो अस्क॑भायदुत्तरं सधस्थ विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः ॥

अन्वय - हे मनुष्या यः पार्थिवानि रजांसि नु विममे य उरुगाय उत्तरं सधस्थं त्रेधा विचक्रमाणोऽस्क भायत्तस्य विष्णोर्वीर्याणि प्रवोचमनेन कं प्राप्नुयां तथा यूयमपि कुरुत।

सन्दर्भ - प्रस्तुत मन्त्र अथर्ववेद के विष्णु सूक्त से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग - उक्त मन्त्र में विष्णु के पराक्रम के बारे में बताया गया है।

व्याख्या - हे मनुष्यों विष्णु के व्यापक शीलदेव के पराक्रम को हम बहुत शीघ्र ही कहते हैं। वे किसकी रचना करता है तो कहते हैं कि तीनों लोक अग्नि, वायु आदित्य रूप लोकों का विशेष रूप से निर्माण करता है। यहाँ पर तीनों लोक भी पृथिवीवाची शब्द है। उससे तीनों लोक का पृथिवी शब्द वाच्यत्व है और जो विष्णु प्रलय के अनन्तर एक साथ के स्थान को तीन प्रकार से विशेषकर कम्पाता हुआ रोकता है, यह अर्थ है। इसके द्वारा ही अन्तरिक्ष आश्रित तीनों लोक की रचना की। अथवा जो विष्णु पृथिवी संबन्धी पृथिवी के नीचे के सात लोकों को अनेक प्रकार से निर्मित किया है। रज्ः शब्द लोकवाची, 'लोका  रजांस्युच्यन्ते ये यास्क ने कहा और जिसने प्रलय के बाद एक साथ के स्थान को तीन प्रकार से विशेषकर कम्पाता हुआ पुण्यकृत मनुष्यों के साथ निवास योग्य भू आदि सात लोकों की रचना की। स्कम्भेः 'स्तम्भुस्तुम्भु' इससे विहित श्नः को 'छन्दसि शायजपि इससे व्यत्यय के द्वारा शायजादेश हुआ। अथवा. पृथिवीनिमित्तलोको का निर्माण किया। भू आदि तीन लोक का यह अर्थ है। भूमि पर अर्जित किया गया कर्मभोग के लिए अन्य लोकों का कारण है और जो सबसे उत्कृष्टतर सभी लोगों के ऊपर है। अपुनरावृत्ति से उसकी उत्कृष्टत्व को कहते हैं। एक साथ के स्थान को उपासकों का सत्यलोक का निर्माण किया अथवा स्थिर करता है। क्या किया। तीन प्रकार से विशेष कर कम्पाता हुआ रोकता है। विष्णु के तीन क्रम हैं 'इदं विष्णुर्विचक्रमे' (ऋ० स० १.२२.१७) इत्यादि श्रुतियों में प्रसिद्ध है। इसलिए ही विष्णु के पराक्रम को अच्छी प्रकार से कहूँ और उससे सुख प्राप्त करूँ। इस प्रकार के जिसने कार्य किये उस प्रकार के विष्णु के पराक्रम को कहता हूँ।

टिप्पणी - नु शीघ्र। कम् यह पादपूरण अर्थ में निपात है। यद्यपि नु कम् ये भिन्न निपात है, फिर भी निघण्टू में हिकम् नुकम् सुकम् आहिकम् आकीम् नकिः माकिः नकीम् आकृम् इन नौ की एक पद के द्वारा गणना की। निपातों का समास नहीं होता है। इसलिये पपाठ में दो अलग निपात दिखाए गये।

॥२॥

प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कु॑चरो गरि॒िष्ठाः। यस्यो॒रुषु॑ त्रि॒षु विक्रम॑णे ष्वधिभि॒यन्ति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥२॥

अन्वय - हे मनुष्या यस्य निर्मितेषुरुषु त्रिषु विक्रमणेषु विश्वा भुवनान्यधिक्षियन्ति तत् स विष्णुः स्ववीर्येण कुचरो गिरिष्ठा मृगो भीमो नेव विश्वाँल्लोकान् प्रस्तते ॥२॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्। प्रसंग - पूर्ववत्।

व्याख्या - हे मनुष्यों जिस जगदीश्वर के निर्माण किये हुए जन्म नाम और स्थान इन तीनों का विविध प्रकार के सृष्टि के कर्मों में समस्त लोक लोकान्तर आधार रूप में निवास करते हैं। वह महानुभावशक्ति से अपने पराक्रमों की ऊपर कहे गए सभी के द्वारा स्तुति करते हैं। शक्ति से स्तुति करते हैं यहाँ पर उदाहरण दिया गया है। हिरनों के लिए शेर के समान जैसे अपने विरोधियों को हिरण के समान भयभीत करता है जैसे शेर से हिरण भयभीत होते हैं वैसे ही डरपोक मनुष्य कुटिलगामी अर्थात ऊँचे-नीचे नाना प्रकार विषम स्थलों में चलने और पर्वत कन्दराओं में स्थिर होने वाले हिरण के समान भयंकर समस्त लोक लोकान्तरों को प्रशासित करता है। इस अर्थ में निरुक्त में कहा गया 'मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः। हिरण के समान भयंकर समस्त लोक लोकान्तरों को प्रशासित करता है। कुचर इति कुटिल कर्म देवताभिधान कुटिल कर्म करते हैं। गिरिस्थायी गिरि पर्वत होते हैं पर्ववान् पर्वत को कहते हैं। उसी प्रकार हम भी हिरणों को खोजने वाला शत्रुओं के समान वह भयंकर है। परमेश्वर से भय 'भीषास्माद्वातः पवते' ( तै० आ० ८.८. १ ) इत्यादि श्रुतियों में प्रसिद्ध है। और कुचर कुटिलगामी शत्रुवध आदि कुत्सित कर्म को कर्ता सभी भूमियों में अथवा तीनों लोक में संचार करता है अथवा पर्वत के समान ऊँचे स्थान होते हैं। अथवा गिरि मन्त्रादिरूप में वाणी सभी वर्तमान है। इस प्रकार यह अपनी महिमा से स्तुति करते हैं और जिस विष्णु के जांघों से विस्तीर्ण तीन संख्याओं में विक्रम पैर प्रक्षेप में विश्व के सभी भुवन उत्पन्न आश्रित होकर के निवास करते हैं वह विष्णु की स्तुति करता है।

टिप्पणी - इस मन्त्र में तीनों लोक का विस्तार किया उसके पराक्रमों का इस प्रकार यहाँ अनेक प्रकार के मत आचार्यों के हैं। विक्रम शब्द का पाद चलाना अर्थ है। उरु शब्द का विस्तार अर्थ है। विस्तृत तीनों लोक में पादप्रक्षेप करके सभी लोकों को आश्रित करके रहता है। विश्व इस सर्वनाम का विश्वानि यह रूप है। वेद में तो विश्वा यह रूप है। विष्णु के तीन पाद जितने ही सभी लोक हैं। अर्थात् विष्णु ने तीन पैर के द्वारा सभी भुवन अर्थात् रचित जगत् को सम्पूर्ण रूप से अतिक्रमण करते हैं। यहाँ भुवन क्या है और वे पादप्रक्षेप क्या है। यहाँ यह विष्णु क्या है। उसका क्या स्वरूप है। पूर्वमन्त्र में जो कहा गया कि विष्णु ने ऊपर के लोक और अधोलोक की रचना की। शाकपूणिने किसी की व्याख्या करते हुए कहा - विष्णु ने तीन पैर के द्वारा तीनों भवनों को पार कर लिया तीन भाव के द्वारा पृथिवी अन्तरिक्ष और दिव में। और्णनाभ इति आचार्य का मत है कि विष्णु यहाँ पर सूर्य है। पूर्व में उगता हुआ प्रथमपाद को धारण करते हैं। मध्याह्न में आकाश पर चढ़कर द्वितीय पाद को रखता है और सायंकाल में घर जाने के लिये तीसरे पद को रखता है।

उसकी इस प्रकार व्याख्या भी सम्भव है जो सृष्टिकर्ता है वह विष्णु है। वह ही तीन पाद में सृष्टि को अतिक्रमण करके रहता है। अर्थात् सृष्टिकाल में एक पाद को रखा। स्थितिकाल में द्वितीय पाद रखा। प्रलयकाल में तीसरा पाद रखा। इस प्रकार वह सृष्टि को अतिक्रमण करता है। यद्यपि एक ही ईश्वर सृष्टिकाल में ब्रह्मा, पालनकाल में विष्णु, संहार में प्रवृत्त महेश्वर इन तीन नामों से जाने जाते हैं। फिर भी वेद से उत्तरसाहित्य में भी विष्णु को ही सृष्टि स्थिति संहारकर्ता अधिकांश रूप से कहा गया है।

३॥

यस्य त्री पू॒र्णा मधु॑ना प॒दा-न्यर्क्षीयमाणा स्व॒धया॒ मद॑न्ति। य उ॑ त्रि॒धातु॑ पृथि॒वीमु॒त द्या - मेर्को दा॒धार॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑॥

अन्वय - हे मनुष्या यस्य रचनायां मधुना पूर्णाऽक्षीयमाणा त्री पदानि मदन्ति य एक उ पृथिवीमुत द्यां त्रिधातु विश्वा भुवनानि दाधार स एव परमात्मा सर्वैर्वेदितव्यः॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग -पूर्ववत्।

व्याख्या - जो विष्णु मधुर आदि गुणों से युक्त दिव्य अमृत के द्वारा पूर्ण तीन पैर पदाप्रक्षेप विनाश रहित अपने अन्न से अपने आश्रित लोगों को प्रसन्न करने वाला और जो एक ही अद्वैत परमात्मा पृथिवी प्रख्यात भूमिद्यौ प्रकाशित अन्तरिक्ष और विश्व के चौदह भुवन और लोकों का कर्ता है अथवा पृथिवी शब्द से नीचे के अतल वितल आदि सात भुवन को कहा गया है। द्यु शब्द से उसके अंतर्गत सात भुव आदि भुवन हैं। इस प्रकार चौदह लोकों को विश्व भुवन सभी उसके अन्तर्गत आते हैं। जिसमें सत्व रजस और तं ये तीन हों। तीन धातुओं का समाहार त्रिधातु कहलाता है। पृथिवी, जल, अग्नि, तीन रूपों जैसा विशिष्ट होता है और उसको धारण करने वाला धृतवान् कहलाता है। तुजादि होने से अभ्यास को दीर्घत्व हुआ। उत्पन्न किया अर्थ है। छन्दोगारण्यक में कहा गया है- 'तत्तेजोऽसृजत तदन्नमसृजत ता आप ऐक्षन्त इति भूतत्रयसृटिमुक्त्वा 'हन्ताहमिमास्तिस्रो देवतास्तासां त्रिवृतं त्रिवृतमेकैकां करवाणि' ( छा० उ० ६.३.२-३) इत्यादि के द्वारा तीन कारणों से सृष्टि को उत्पन्न किया। अथवा तीन धातु से तीन काल से अथवा तीन गुण से धारण किया हुआ है।

टिप्पणी - जिसका कभी विनाश नहीं होता है, जिसके मधुर से पूर्ण तीन पैर ( मनुष्यों के लिये) अपनी शक्ति से आनन्द देता है, जो एक होता हुआ भी तीन धातुओं को, पृथिवी को, आकाश को तथा सम्पूर्ण लोक को धारण करता है (उस विष्णु के प्रति मेरी शक्तिशाली स्तुति जाये)। इसका यह भाव जो अनादि कारण से सूर्य आदि प्रकाश के समान शीघ्र उत्पन्न करने वाला सभी के द्वारा भोग्य पदार्थों के साथ जोड़ता है आनन्द प्रदान करता है, उसके गुणकर्म उपासना से ही आनन्द की प्राप्ति होती है।

॥४॥

ता वां वास्तूंन्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरि॑शृङ्गा अस॑ः। अत्राह॒ तदु॑रुगा॒यस्य॒ वृष्ण॑ः परमं पद॒मव॑ भाति भूरि ॥४॥

अन्वय - (हे आप्तौ विद्वांसौ) यत्रायासो भूरिशृङ्गा गावः सन्ति ता तानि वास्तूनि वां युवयोर्गमध्यै वयमुश्मसि। यदुरुगायस्य वृष्णः परमेश्वरस्य परमं पदं भूर्यवभाति तदत्राह वयमुश्मसि ॥४॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - पूर्ववत्।

व्याख्या - हे शास्त्रवेता विद्वानों अथवा यजमान तुम्हारे लिये प्राप्त करने योग्य प्रसिद्ध वस्तुओं को सुख निवास के योग्य स्थान जाने को हम लोग चाहते हैं। उसके लिये विष्णु से प्रार्थना करते हैं यह अर्थ है। उन किनको यहाँ पर कहते हो। जहाँ वस्तुओं में बहुत उत्तम सींगों के समान किरने के द्वारा उन वस्तुओं को हम जान सकते हैं अथवा वे किरणों द्वारा अत्यधिक विस्तृत होती है। अथवा उन गए हुए को प्राप्त हो। इस प्रकार अत्यन्त प्रकाश से युक्त यह अर्थ है। यहाँ कहा गया है कि वस्तु के आधारभूत द्युलोक में अनन्त विस्तृत सूर्य की किरणें सुख की वर्षा करने वाले सभी पुराणों आदि में समझने योग्य प्रसिद्ध परमात्मा के विशेष स्थान को अत्यन्त उत्कृष्टता को अपनी महिमा से प्रकट करता है। इस मन्त्र में यास्क ने गोशब्द को किरणवाचक रूप में व्याख्या की है उन वस्तुओं की कामना करता हूँ जहाँ जाने के लिये गायों के तीक्ष्ण सींग के समान जो तेज किरणें है उनका प्रकाश वहाँ तक विस्तृत हो "शृङ्गं श्रयतेर्वा शृणातेर्वा शम्नातेर्वा शरणयोद्गतमिति वा शिरसो निर्गतमिति वायासोऽयना"। वहाँ अनन्त विष्णु की महिमा का उत्कृष्ण रूप से उसका वर्णन किया।

टिप्पणी - इस मन्त्र में ऋत्विग पत्नी यजमान के प्रति कहता है कि हे पतनीयजमानो तुम उस स्थान के प्रति जाओ जहाँ तेज किरणें हमेशा गतिशील रहती हैं। जहाँ महान गतिशील की इच्छापूर्ति करने वाले विष्णु के परम धाम अधोलोक को प्रकाशित करता है। यह इसका भाव है कि यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जहाँ विद्वान मुक्ति को प्राप्त करते हैं, वहाँ कुछ भी अन्धकार नहीं है, और मोक्ष प्राप्त किरने प्रकाशित होती हैं उस विद्वान को ही मुक्त पद ब्रह्म सभी ओर से प्रकाशित करते हैं।

 

(३) सामनस्य सूक्त

१.

सहदयं सामनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः। अन्योअन्यमभि हर्यत वत्सजातमिवाध्याः ॥

अन्वय - ( अहम् ) वः सहृदयं सांमनस्यम् अविद्वेषं कृणोमि अघ्न्या जातं वात्समिव अन्यो अन्यम् अभिहर्यता।

सन्दर्भ - प्रस्तुत मन्त्र अथर्ववेद के तीसरे काण्ड सामनस्य सूक्त से उद्धृत किया गया है, इसके ऋषि अर्थवा एवं देवता चन्द्रमा, सामनस्य हैं। इसमंन अनुष्टुप् छन्द है।

प्रसंग - प्रस्तुत मन्त्र में मनुष्यों से सौमनस्य बढ़ाने वाले कर्मों को करने के लिये कहा गया है

हिन्दी व्याख्या - हे मनुष्यों ! हम आपके लिए हृदय को प्रेमपूर्ण बनाने वाले तथा सौमनस्य बढ़ाने वाले कर्म करते हैं। आप लोग परस्पर उसी प्रकार व्यवहार करें, जिस प्रकार उत्पन्न हुये बछड़े से गाये स्नेह करती है।

व्याख्या - इस सूक्त में निम्नलिखित बातें प्रमुख रूप सें कही गयी हैं-

१. हमें परस्पर अविरोधी भावों तथा द्वेष भाव को त्याग कर हृदय और मन की समानता का व्यवहार करना चाहिये। द्वेष भाव न रहने पर ही आपस में प्रेम उत्पन्न हो सकता है, अन्यथा परस्पर में अविरोधी भाव तथा द्वेषता रहने पर प्रेम नहीं हो सकता है।

२. जिस प्रकार गाय अपने नवजात बछडे से निःस्वार्थ भाव से प्रेम करती है तथा समय आने पर अपने प्राण देकर भी उसकी रक्षा करती है उसी प्रकार हमें आपस में निःस्वार्थ भाव से प्रेम करना चाहिये। गाय के लिये अघ्न्या पर जो सूक्त में दिया गया है उस पर ज्ञात होता है कि गाय सर्वथा अवध्य अर्थात् वध करने योग्य नहीं है जो लोग वेदों में गोवध का प्रतिपादन करते हैं यह सर्वथा उनकी मिथ्या धारणा है।

शब्दार्थ - वः = तुम्हारे लिये, सहृदय = समान हृदयों से युक्त, अविद्वेषम् = द्वेष से रहित को, कृणोमि = करता हूँ, जातम् = उत्पन्न हुये, वत्सम् = नवजात बछड़े को।

२.

अनुव्रतः पितुः पुत्रोमाता भवतु संमनाः। जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम् ॥

अन्वय - पुत्रः पितुः अनुव्रतः मात्रा संमनाः भवतु। जाया पत्ये मधुमतीं शान्तिवां वाच्यं वदतु॥

सन्दर्भ - उपरोक्त मन्त्र अथर्ववेद के तीसरे काण्ड सांमनस्य सूक्त का दूसरा मन्त्र है। अथर्ववेद की शौनक शाखा में २० काण्ड ७३० सूक्त एवं ५६८७ मन्त्र हैं, इस शाखा में सबसे बड़ा काण्ड २०वाँ काण्ड है तथा सबसे छोटा काण्ड १७वाँ काण्ड है। इसके ऋषि अर्थवा तथा देवता चन्द्रमा, सामनस्य हैं। इसमें अनुष्टुप् छन्द है।

प्रसंग - इस सूक्त में कलह कहाँ होता है कहाँ नहीं होता है, इसके विषय में बताया गया है। हिन्दी व्याख्या - पुत्र अपने पिता के अनुकूल कर्म करने वाला हो और अपनी माता के साथ समान विचार से रहने वाला हो। पत्नी अपने पति से मधुरता तथा सुखं से युक्त वाणी बोले।

व्याख्या - अनुव्रत के दो भाव है- १. पुत्र अपने पिता के आज्ञा का अनुसरण करने वाला हो, उसके विरुद्ध न चले। प्रत्येक परिवार के कुछ व्रत नियम होते हैं। यथा सत्य, दान, परोपकार, यज्ञ, ईश्वर भक्ति आदि। पुत्र को भी पिता के इन कार्यों का पालन करना चाहिये। २. पुत्र स्वयं पिता के विरुद्ध कोई कार्य न करे। पत्नी के वाणी में दो गुण होने चाहिए - १. माधुर्य, २. शान्ति। वाणी केवल माधुर्य युक्त न हो अपितु शान्तिदायक भी हो। जहाँ वाणी में दोनों गुण होंगे, वहाँ कलह नहीं हो सकती, कलह वहीं होती है जहाँ ये दोनों नियम नहीं हैं।

शब्दार्थ - पुत्रः = पुत्र पितुः = पिता के, अनुव्रत = अनुकूल व्रत करने वाला हो, मात्रा = माता के साथ, संमना = समान मन वाला, भवतुः हो, जाया = पत्नि, पत्य = पत्नि, पत्य = पति के लिए, मधुमतीम् माधुर्य युक्त, शान्तिवाम् = शान्ति को देने वाला, वाचम् = वाणी को वदतु बोले।

३.

मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यञ्चः सव्रताः भूत्वा वाचं वदतभद्रया ॥

अन्वय - भ्राता भ्रातंर माद्विक्षत् इतस्वसार स्वसामाद्विक्षत् सम्यन्तः सव्रता भूत्वा भद्रयावाचं वदतु। सन्दर्भ पूर्ववत्

प्रसंग - इस सूक्त का भाव यह है कि परिवार में एक-दूसरे के साथ विरुद्ध कार्य न करें।

हिन्दी व्याख्या - अपने भाई से द्वेष न करे और बहन अपनी बहन से द्वेष न करे। वे सब एक विचार तथा एक कर्म वाले होकर परस्पर कल्याणकारी वार्तालाप करें।

व्याख्या - इस सूक्त में समान गति वाले तथा समान कर्म वाले होने की बात कही गयी है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि व्यक्ति एक ही कार्य को करेंगे। समान का अर्थ है उस जैसा, उसके विपरीत नहीं। परिवार का कोई व्यक्ति परिश्रम से कोई भी कार्य करके धनार्जन करता है तो दूसरे व्यक्ति भी ऐसा ही करें। वे अन्याय से चोरी इत्यादि करके धन न कमाएँ उसी से आपस में प्रेम रहेगा। समान गति का भी यही अर्थ है कि एक-दूसरे से विरुद्ध आचरण न करें। भद्रवाणी का अर्थ है 'कल्याणकारिणी। हम एक- दूसरे की सहायता अन्य किसी प्रकार से न कर सकें, तो भी इतना तो किया ही जा सकता है कि वाणी के द्वारा हितकारिणी बात ही कहें, अहितकारिणी नहीं।

शब्दार्थ - भ्राता = भाई, भ्रातरम् = भाई, मामत, स्वसा = बहिन, द्विक्षत् = द्वेष, सम्यचः = समान गति वाले, सव्रता समान कर्म वाले, वाचम् = वाणी को, वदतु = बोले।

४.

येन देवा न वियन्तिनो च विद्विषते मिथः। तत्कृण्मो ब्रह्मं वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः ॥

अन्वय -
येन देवा न वियन्ति मिथः विद्विषते न चाततः संज्ञानां वः गृहे पुरुषेभ्यः कृष्णः॥
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग -वेद के ज्ञान से वैर विरोध नहीं होता, इस सूक्त में यही बताया गया है।

हिन्दी व्याख्या - जिसकी शक्ति से देवगण विपरीत विचार वाले नहीं होते हैं और परस्पर द्वेष भी नहीं करते हैं, उस समान विचार को सम्पादित करने वाले ज्ञान को हम आपके घर के मनुष्यों के लिए ( जाग्रत् या प्रयुक्त) करते हैं।

व्याख्या - विरुद्ध जाना, प्रथक् होना विरुद्ध जायेंगे तो परस्पर द्वेष होगा ही, अथवा द्वेष होने पर परस्पर विरुद्ध हो जायेंगे। इस द्वेष तथा विरोध को दूर करने का साधन ब्रह्म है। ब्रह्म = ज्ञान, वेद, ईश्वर हैं। ज्ञानी जनों में वैर विरोध नहीं होता। वेद को पढ़ने से तथा ईश्वर की भक्ति से वैर-विरोध नहीं होता। इस प्रकार यहाँ ब्रह्म के द्वारा तीनों साधन अभिप्रेत हैं।

शब्दार्थ - देवा = विद्वानजन, येन = जिस उपाय से, न = नहीं, वियन्ति = अलग होते, न च = नहीं और विद्विषते = विद्वेष करते हैं। वः = तुम्हारे, गृहे = घर में, पुरुषेभ्यः = मनुष्यों के लिए तत् = वह, संज्ञानम् = समान ज्ञान का निमित्त, ब्रह्म = वदे ज्ञान, कृष्णः = करते हैं।

५.

ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वियौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः। अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सधीचीनान् वः समनकृणोमि॥

अन्वय - (अहं) ज्यायस्वन्तः संराधयन्तः, सधुराः, चरन्तः, आइत अन्यः अन्यस्मैबल्गु वदन्तः मावि यौष्टम् वः सध्रीचीनान् संमनम्कृणो।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस सूक्त में बताया गया है कि परिवार में तथा समाज में बड़े के साथ संयुक्त होकर कार्य सिद्ध करने चाहिए।

 

हिन्दी व्याख्या - आप छोटों बड़ों का ध्यान रखकर व्यवहार करते हुये समान विचार रखते हुए तथा समान कार्य करते हुये पृथक् न हों। आप एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक वार्तालाप करते हुये पधारें। हे मनुष्यों ! हम भी आपके समान कार्यों में प्रवृत्त होते हैं।

व्याख्या - यहाँ पर परिवार के लिए निम्न गुण कहे गये हैं- बड़े व्यक्ति ही मार्गदर्शक होते हैं। मन तो सबके पास होता है किन्तु सभी व्यक्ति सावधान मन वाले नहीं होते। जिस प्रकार धुरे के चारों ओर लगे हुये अरे धुरे के आश्रय से ही आगे बढ़ते हैं। इसी प्रकार परिवार में तथा समाज में भी बड़े व्यक्ति के साथ संयुक्त होकर किसी न किसी प्रकार की कार्य सिद्धि करते रहना चाहिए। हम एक-दूसरे से अलग न जायें, कल्याणकारी वाणी बालते हुये एक-दूसरे से निकट आयें, यह सभी तब सम्भव है जबकि हमारी गति तथा मन के भाव समान हों, इसके लिये ही मन्त्र से सध्रीचीन तथा समनस शब्द आये हैं।

शब्दार्थ - ज्यायस्वन्तः = बड़ों से युक्त, संराध्यन्तः = मिलकर संसिद्धि करते हुये। सुधराः मिलकर कार्य को करते हुये, चरन्तः = गतिशील होकर, वियौष्टम् = वियुक्त मत होओ। अन्यः अन्यस्मै एक-दूसरे के लिए, वल्गु = प्रियवाणी, वन्तः = बोलते हुये तुम, आइत = एक-दूसरे के निकट आओ, सध्रीचीनान् = साथ-साथ चलते हुये, वः = तुम्हें, संमनसः = समान मन वाले कृणोमि = करता हूँ।

६.

समानी प्रपा सह वोऽन्नभागः समाने योक्त्रे सह वोयुनिज्म। सम्यञ्चोऽग्निं सपर्यतारानाभिमिवाभितः ॥

अवयव - वः समानी प्रथा वः सह अन्नभागः। वः सह सामने योक्तेयुनज्मि सम्यचः अग्निं सपर्यत नाभिमभित अरा इवं।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस सूक्त में बताया गया है कि किसी भी आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ खान-पान, रहन-सहन आदि में समान व्यवहार होना चाहिए।

हिन्दी अनुवाद - हे समानता की कामना करने वाले मनुष्यों! आपके जल पीने के स्थान एक हों तथा अन्न का भाग साथ-साथ हो। हम आपको एक ही प्रेमपाश में साथ-साथ बँधते हैं। जिस प्रकार पहियों के अरे नाभि के आश्रित होकर रहते हैं, उसी प्रकार आप सब भी एक ही फल की कामना करते हुये अग्निदेव की उपासना करें।

व्याख्या - समाज में खान-पान के आधार पर भेद नहीं होना चाहिये। इसके दो अर्थ हैं

१. सभी को सभी स्थानों पर समान रूप से खाने-पीने का अधिकार होना चाहिये। छुआ-छूत या जाति के आधार पर अलग न हों।

२. समाज के सभी व्यक्ति मिलकर खायें, ऐसा न हो कि कुछ लोगों के पास तो विपुल खाद्य सामग्री हो किन्तु समाज का एक वर्ग भूखा-प्यासा ही रहे। इसके लिए मन्त्र में कहा गया है कि मैं तुम्हें एक ही बन्धन में बाँधता हूँ। यह बन्धन राष्ट्रीयता तथा समाजिकता का है। प्रत्येक व्यक्ति समाज एवं राष्ट्र के अन्य व्यक्तियों को भी अपना ही भाई, समझे, तभी ऐसा होना सम्भव है। इसलिये सायणाचार्य ने योन्त्र (योत्र ) का अर्थ स्नेह बन्धन माना है। सभी लोग मिलकर यज्ञादि में भौतिक अग्नि की तथा आध्यात्मिक पक्ष में परमेश्वराग्नि की पूजा उपासना करें। हमारे उपास्य पृथक्-पृथक् न हों, अग्रणी नेता के साथ समाज उसी प्रकार संयुक्त रहे जैसे रथ के नाभी के चारों ओर अरे संयुक्त रहते हैं।

शब्दार्थ - वः = तुम्हारी, प्रपा = पानी का स्थान, समानी = एक ही हो, अन्नभागः = अन्न का सेवन भी, सह = साथ-साथ हो, सामने योक्ते = समान बन्धन में, युनज्मि = नियुक्त करता हूँ, सम्यंचः = परस्पर मिलकर, अग्निं = अग्नि को समर्पयत = पूजा करें, पूजा करें, नामिम् = जिस प्रकार रथ की नाभी के. अभितः = चारों ओर, अरा इव = अरे लगे रहते हैं (उसी के समान)।

७.

सधीचीनान् वः संमनसस्कृणोम्येकश्रुष्टीन्त्संवनेन सर्वान्। देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायंप्रातः सौमनसो वो अस्तु ॥

अन्वय- ( अहम् ) वः सर्वान् संवनेन सध्रीचीनान् संमनसः एकरनुष्टिीन् कृणोमि। देवाः इव अमृतं रक्षमाणः सायंप्रातः वः सौमनसः अस्तु।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस सूत्र में कहा गया है कि कल्याणकारी वाणी का प्रयोग करने से परस्पर में (आपस में) मैत्री भाव उत्पन्न होता है।

हिन्दी अनुवाद - हम आपके मन को समान बनाकर एक जैसे कार्य में प्रवृत्त करते हैं और आपको एक जैसा अन्न ग्रहण करने वाला बनाते हैं। इसी कार्य के द्वारा हम आपको वशीभूत करते हैं। अमृत की सुरक्षा करने वाले देवताओं के समान आपके मन प्रातः और सायं हर्षित रहें।

व्याख्या - सायणाचार्य संवनने का अर्थ व शीकरवेन अनेन समनस्य कर्मणा लिखा है। सम्भवतः इसी आधार पर यह समझा जाने लगा कि यह वशीकरण युक्त है। इसका पाठ करके किसी को वश में किया जा सकता है। यह सम्भव नहीं है। यदि ऐसा होता शत्रु को भी वश में कर लिया जाता। वस्तुतः इसका अभिप्राय यही है कि इस सूत्र में जिन कर्त्तव्यों का उपदेश दिया गया है, उनका पालन करने से परस्पर मैत्री भाव उत्पन्न होगा। इन उपायों के लिए कल्याणकारी वाणी का प्रयोग करना अत्यन्त आवश्यक है यही वशीकरण मन्त्र है। कहा भी है- " वशीकरण एक मन्त्र है तजके वचन कठोर।"

शब्दार्थ - अहम् = मैं, वः = तुम, सर्वान् = सभी लोगों को, संवनेन = परस्पर सहमति के द्वारा, सध्रीचीनान् = साथ-साथ गति करने वाले समनसं समान मन वाले तथा एक, श्रुष्टीन = साथ-साथ भोजन करने वाले, कृणोमि = करता हूँ, अमृतं रक्षमाणाः = दीर्घ जीवन की रक्षा करते हुये, देवाः = विद्वान, सांय प्रातः = सर्वदा, वः = तुम्हारा, सौमनसः = सौमनस्य, अस्तु = होवें।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- वेद के ब्राह्मणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- ऋग्वेद के वर्ण्य विषय का विवेचन कीजिए।
  3. प्रश्न- किसी एक उपनिषद का सारांश लिखिए।
  4. प्रश्न- ब्राह्मण साहित्य का परिचय देते हुए, ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषय का विवेचन कीजिए।
  5. प्रश्न- 'वेदाङ्ग' पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण पर एक निबन्ध लिखिए।
  7. प्रश्न- उपनिषद् से क्या अभिप्राय है? प्रमुख उपनिषदों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  8. प्रश्न- संहिता पर प्रकाश डालिए।
  9. प्रश्न- वेद से क्या अभिप्राय है? विवेचन कीजिए।
  10. प्रश्न- उपनिषदों के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  11. प्रश्न- ऋक् के अर्थ को बताते हुए ऋक्वेद का विभाजन कीजिए।
  12. प्रश्न- ऋग्वेद का महत्व समझाइए।
  13. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण के आधार पर 'वाङ्मनस् आख्यान् का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
  14. प्रश्न- उपनिषद् का अर्थ बताते हुए उसका दार्शनिक विवेचन कीजिए।
  15. प्रश्न- आरण्यक ग्रन्थों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- ब्राह्मण-ग्रन्थ का अति संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- आरण्यक का सामान्य परिचय दीजिए।
  18. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
  19. प्रश्न- देवता पर विस्तृत प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तों में से किसी एक सूक्त के देवता, ऋषि एवं स्वरूप बताइए- (क) विश्वेदेवा सूक्त, (ग) इन्द्र सूक्त, (ख) विष्णु सूक्त, (घ) हिरण्यगर्भ सूक्त।
  21. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में स्वीकृत परमसत्ता के महत्व को स्थापित कीजिए
  22. प्रश्न- पुरुष सूक्त और हिरण्यगर्भ सूक्त के दार्शनिक तत्व की तुलना कीजिए।
  23. प्रश्न- वैदिक पदों का वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- 'वाक् सूक्त शिवसंकल्प सूक्त' पृथ्वीसूक्त एवं हिरण्य गर्भ सूक्त की 'तात्त्विक' विवेचना कीजिए।
  25. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  26. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रयुक्त "कस्मै देवाय हविषा विधेम से क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- वाक् सूक्त का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
  28. प्रश्न- वाक् सूक्त अथवा पृथ्वी सूक्त का प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- वाक् सूक्त में वर्णित् वाक् के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
  30. प्रश्न- वाक् सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  31. प्रश्न- पुरुष सूक्त में किसका वर्णन है?
  32. प्रश्न- वाक्सूक्त के आधार पर वाक् देवी का स्वरूप निर्धारित करते हुए उसकी महत्ता का प्रतिपादन कीजिए।
  33. प्रश्न- पुरुष सूक्त का वर्ण्य विषय लिखिए।
  34. प्रश्न- पुरुष सूक्त का ऋषि और देवता का नाम लिखिए।
  35. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। शिवसंकल्प सूक्त
  36. प्रश्न- 'शिवसंकल्प सूक्त' किस वेद से संकलित हैं।
  37. प्रश्न- मन की शक्ति का निरूपण 'शिवसंकल्प सूक्त' के आलोक में कीजिए।
  38. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त में पठित मन्त्रों की संख्या बताकर देवता का भी नाम बताइए।
  39. प्रश्न- निम्नलिखित मन्त्र में देवता तथा छन्द लिखिए।
  40. प्रश्न- यजुर्वेद में कितने अध्याय हैं?
  41. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त के देवता तथा ऋषि लिखिए।
  42. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त
  43. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त में वर्णित पृथ्वी की उपकारिणी एवं दानशीला प्रवृत्ति का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- पृथ्वी की उत्पत्ति एवं उसके प्राकृतिक रूप का वर्णन पृथ्वी सूक्त के आधार पर कीजिए।
  45. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  46. प्रश्न- विष्णु के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- विष्णु सूक्त का सार लिखिये।
  48. प्रश्न- सामनस्यम् पर टिप्पणी लिखिए।
  49. प्रश्न- सामनस्य सूक्त पर प्रकाश डालिए।
  50. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। ईशावास्योपनिषद्
  51. प्रश्न- ईश उपनिषद् का सिद्धान्त बताते हुए इसका मूल्यांकन कीजिए।
  52. प्रश्न- 'ईशावास्योपनिषद्' के अनुसार सम्भूति और विनाश का अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा विद्या अविद्या का परिचय दीजिए।
  53. प्रश्न- वैदिक वाङ्मय में उपनिषदों का महत्व वर्णित कीजिए।
  54. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
  55. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के अनुसार सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करने का मार्ग क्या है।
  56. प्रश्न- असुरों के प्रसिद्ध लोकों के विषय में प्रकाश डालिए।
  57. प्रश्न- परमेश्वर के विषय में ईशावास्योपनिषद् का क्या मत है?
  58. प्रश्न- किस प्रकार का व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता? .
  59. प्रश्न- ईश्वर के ज्ञाता व्यक्ति की स्थिति बतलाइए।
  60. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या में क्या अन्तर है?
  61. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या (ज्ञान एवं कर्म) को समझने का परिणाम क्या है?
  62. प्रश्न- सम्भूति एवं असम्भूति क्या है? इसका परिणाम बताइए।
  63. प्रश्न- साधक परमेश्वर से उसकी प्राप्ति के लिए क्या प्रार्थना करता है?
  64. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् का वर्ण्य विषय क्या है?
  65. प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
  66. प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
  67. प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  68. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  69. प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
  70. प्रश्न- जैन दर्शन का नया विचार प्रस्तुत कीजिए तथा जैन स्याद्वाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  71. प्रश्न- बौद्ध दर्शन से क्या अभिप्राय है? बौद्ध धर्म के साहित्य तथा प्रधान शाखाओं के विषय में बताइये तथा बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य क्या हैं?
  72. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  73. प्रश्न- जैन दर्शन का सामान्य स्वरूप बताइए।
  74. प्रश्न- क्या बौद्धदर्शन निराशावादी है?
  75. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  76. प्रश्न- विविध दर्शनों के अनुसार सृष्टि के विषय पर प्रकाश डालिए।
  77. प्रश्न- तर्क-प्रधान न्याय दर्शन का विवेचन कीजिए।
  78. प्रश्न- योग दर्शन से क्या अभिप्राय है? पतंजलि ने योग को कितने प्रकार बताये हैं?
  79. प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  80. प्रश्न- मीमांसा का क्या अर्थ है? जैमिनी सूत्र क्या है तथा ज्ञान का स्वरूप और उसको प्राप्त करने के साधन बताइए।
  81. प्रश्न- सांख्य दर्शन में ईश्वर पर प्रकाश डालिए।
  82. प्रश्न- षड्दर्शन के नामोल्लेखपूर्वक किसी एक दर्शन का लघु परिचय दीजिए।
  83. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  84. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय
  85. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के अनुसार आत्मा का स्वरूप निर्धारित कीजिए।
  86. प्रश्न- 'श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के आधार पर कर्म का क्या सिद्धान्त बताया गया है?
  87. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए?
  88. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का सारांश लिखिए।
  89. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता को कितने अध्यायों में बाँटा गया है? इसके नाम लिखिए।
  90. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास का परिचय दीजिए।
  91. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय लिखिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( आरम्भ से प्रत्यक्ष खण्ड)
  93. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं पदार्थोद्देश निरूपण कीजिए।
  94. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं द्रव्य निरूपण कीजिए।
  95. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं गुण निरूपण कीजिए।
  96. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं प्रत्यक्ष प्रमाण निरूपण कीजिए।
  97. प्रश्न- अन्नम्भट्ट कृत तर्कसंग्रह का सामान्य परिचय दीजिए।
  98. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन एवं उसकी परम्परा का विवेचन कीजिए।
  99. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों का विवेचन कीजिए।
  100. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण को समझाइये।
  101. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के आधार पर 'गुणों' का स्वरूप प्रस्तुत कीजिए।
  102. प्रश्न- न्याय तथा वैशेषिक की सम्मिलित परम्परा का वर्णन कीजिए।
  103. प्रश्न- न्याय-वैशेषिक के प्रकरण ग्रन्थ का विवेचन कीजिए॥
  104. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण की विवेचना कीजिए।
  105. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )
  106. प्रश्न- 'तर्कसंग्रह ' अन्नंभट्ट के अनुसार अनुमान प्रमाण की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  107. प्रश्न- तर्कसंग्रह के अनुसार उपमान प्रमाण क्या है?
  108. प्रश्न- शब्द प्रमाण को आचार्य अन्नम्भट्ट ने किस प्रकार परिभाषित किया है? विस्तृत रूप से समझाइये।

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